हर घर में कानाफूसी औ’ षडयंत्र,
हर महफ़िल के स्वर में विद्रोही मंत्र,
क्या नारी क्या नर
क्या भू क्या अंबर
माँग रहे हैं जीने का वरदान,
सब बच्चे, सब निर्बल, सब बलवान,
सब जीवन सब प्राण,
सुबह दोपहर शाम।
‘अब क्या होगा राम?’
कुछ नहीं समझ में आते ऐसे राज़,
जिसके देखो अनजाने हैं अंदाज़,
दहक रहे हैं छंद,
बारूदों की गंध
अँगड़ाती सी उठती है हर द्वार,
टूट रही है हथकड़ियों की झंकार
आती बारंबार,
जैसे सारे कारागारों का कर काम तमाम।
‘अब क्या होगा राम?’
-दुष्यंत कुमार
हिंदी काव्य पंक्तियाँ - Hindi Kavya Panktiya
Thursday, February 7, 2019
अनुरक्ति
जब जब श्लथ मस्तक उठाऊँगा
इसी विह्वलता से गाऊँगा।
इस जन्म की सीमा-रेखा से लेकर
बाल-रवि के दूसरे उदय तक
हतप्रभ आँखों के इसी दायरे में खींच लाना
तुम्हें मैं बार बार चाहूँगा!
सुख का होता स्खलन
दुख का नहीं,
अधर पुष्प होते होंगे—
गंध-हीन, निष्प्रभाव, छूछे....खोखले....अश्रु नहीं;
गेय मेरा रहेगा यही गर्व;
युग-युगांतरों तक मैं तो
इन्हीं शब्दों में कराहूँगा।
कैसे बतलाऊँ तुम्हें प्राण!
छूटा हूँ तुमसे तो क्या?
वाण छोड़ा हुआ
भटका नहीं करता!
लगूँगा किसी तट तो—
कहीं तो कचोटूँगा!
ठहरूँगा जहाँ भी—प्रतिध्वनि जगाऊँगा।
तुम्हें मैं बार बार चाहूँगा!
-दुष्यंत कुमार
इसी विह्वलता से गाऊँगा।
इस जन्म की सीमा-रेखा से लेकर
बाल-रवि के दूसरे उदय तक
हतप्रभ आँखों के इसी दायरे में खींच लाना
तुम्हें मैं बार बार चाहूँगा!
सुख का होता स्खलन
दुख का नहीं,
अधर पुष्प होते होंगे—
गंध-हीन, निष्प्रभाव, छूछे....खोखले....अश्रु नहीं;
गेय मेरा रहेगा यही गर्व;
युग-युगांतरों तक मैं तो
इन्हीं शब्दों में कराहूँगा।
कैसे बतलाऊँ तुम्हें प्राण!
छूटा हूँ तुमसे तो क्या?
वाण छोड़ा हुआ
भटका नहीं करता!
लगूँगा किसी तट तो—
कहीं तो कचोटूँगा!
ठहरूँगा जहाँ भी—प्रतिध्वनि जगाऊँगा।
तुम्हें मैं बार बार चाहूँगा!
-दुष्यंत कुमार
आँधी और आग
अब तक ग्रह कुछ बिगड़े बिगड़े से थे इस मंगल तारे पर
नई सुबह की नई रोशनी हावी होगी अँधियारे पर
उलझ गया था कहीं हवा का आँचल अब जो छूट गया है
एक परत से ज्यादा राख़ नहीं है युग के अंगारे पर।
-दुष्यंत कुमार
नई सुबह की नई रोशनी हावी होगी अँधियारे पर
उलझ गया था कहीं हवा का आँचल अब जो छूट गया है
एक परत से ज्यादा राख़ नहीं है युग के अंगारे पर।
-दुष्यंत कुमार
गीत तेरा
गीत तेरा मन कँपाता है।
शक्ति मेरी आजमाता है।
न गा यह गीत,
जैसे सर्प की आँखें
कि जिनका मौन सम्मोहन
सभी को बाँध लेता है,
कि तेरी तान जैसे एक जादू सी
मुझे बेहोश करती है,
कि तेरे शब्द
जिनमें हूबहू तस्वीर
मेरी ज़िंदगी की ही उतरती है;
न गा यह ज़िंदगी मेरी न गा,
प्राण का सूना भवन हर स्वर गुँजाता है,
न गा यह गीत मेरी लहरियों में ज्वार आता है।
हमारे बीच का व्यवधान कम लगने लगा
मैं सोचती अनजान तेरी रागिनी में
दर्द मेरे हृदय का जगने लगा;
भावना की मधुर स्वप्निल राह--
‘इकली नहीं हूँ मैं आह!’
सोचती हूँ जब, तभी मन धीर खोता है,
कि कहती हूँ न जाने क्या
कि क्या कुछ अर्थ होता है?
न जाने दर्द इतना किस तरह मन झेल पाता है?
न जाने किस तरह का गीत यौवन तड़फड़ाता है?
न गा यह गीत मुझको दूर खींचे लिए जाता है।
गीत तेरा मन कँपाता है।
हृदय मेरा हार जाता है।
- दुष्यंत कुमार
शक्ति मेरी आजमाता है।
न गा यह गीत,
जैसे सर्प की आँखें
कि जिनका मौन सम्मोहन
सभी को बाँध लेता है,
कि तेरी तान जैसे एक जादू सी
मुझे बेहोश करती है,
कि तेरे शब्द
जिनमें हूबहू तस्वीर
मेरी ज़िंदगी की ही उतरती है;
न गा यह ज़िंदगी मेरी न गा,
प्राण का सूना भवन हर स्वर गुँजाता है,
न गा यह गीत मेरी लहरियों में ज्वार आता है।
हमारे बीच का व्यवधान कम लगने लगा
मैं सोचती अनजान तेरी रागिनी में
दर्द मेरे हृदय का जगने लगा;
भावना की मधुर स्वप्निल राह--
‘इकली नहीं हूँ मैं आह!’
सोचती हूँ जब, तभी मन धीर खोता है,
कि कहती हूँ न जाने क्या
कि क्या कुछ अर्थ होता है?
न जाने दर्द इतना किस तरह मन झेल पाता है?
न जाने किस तरह का गीत यौवन तड़फड़ाता है?
न गा यह गीत मुझको दूर खींचे लिए जाता है।
गीत तेरा मन कँपाता है।
हृदय मेरा हार जाता है।
- दुष्यंत कुमार
परिणति
आत्मसिद्ध थीं तुम कभी!
स्वयं में समोने को भविष्यत् के स्वप्न
नयनों से वेगवान सुषमा उमड़ती थी,
आश्वस्त अंतस की प्रतिज्ञा की तरह
तन से स्निग्ध मांसलता फूट पड़ती थी
जिसमें रस था:
पर अब तो
बच्चों ने जैसे
चाकू से खोद खोद कर
विकृत कर दिया हो किसी आम के तने को
गोंद पाने के लिए:
सपनों के उद्वेलन
बचपन के खेल बनकर रह गए;
शुष्क सरिता का अंतहीन मरुथल!
स्थिर....नियत.....पूर्व निर्धारित सा जीवन-क्रम
तोष-असंतोष-हीन,
शब्द गए
केवल अधर रह गए;
सुख-दुख की परिधि हुई सीमित
गीले-सूखे ईंधन तक,
अनुभूतियों का कर्मठ ओज बना
राँधना-खिलाना
यौवन के झनझनाते स्वरों की परिणति
लोरियाँ गुनगुनाना
(मुन्ने को चुपाने के लिए!)
किसी प्रेम-पत्र सदृश
आज वह भविष्यत्!
फ़र्श पर टुकड़ों में बिखरा पड़ा है
क्षत-विक्षत!
-दुष्यंत कुमार
स्वयं में समोने को भविष्यत् के स्वप्न
नयनों से वेगवान सुषमा उमड़ती थी,
आश्वस्त अंतस की प्रतिज्ञा की तरह
तन से स्निग्ध मांसलता फूट पड़ती थी
जिसमें रस था:
पर अब तो
बच्चों ने जैसे
चाकू से खोद खोद कर
विकृत कर दिया हो किसी आम के तने को
गोंद पाने के लिए:
सपनों के उद्वेलन
बचपन के खेल बनकर रह गए;
शुष्क सरिता का अंतहीन मरुथल!
स्थिर....नियत.....पूर्व निर्धारित सा जीवन-क्रम
तोष-असंतोष-हीन,
शब्द गए
केवल अधर रह गए;
सुख-दुख की परिधि हुई सीमित
गीले-सूखे ईंधन तक,
अनुभूतियों का कर्मठ ओज बना
राँधना-खिलाना
यौवन के झनझनाते स्वरों की परिणति
लोरियाँ गुनगुनाना
(मुन्ने को चुपाने के लिए!)
किसी प्रेम-पत्र सदृश
आज वह भविष्यत्!
फ़र्श पर टुकड़ों में बिखरा पड़ा है
क्षत-विक्षत!
-दुष्यंत कुमार
मंत्र हूँ
मंत्र हूँ तुम्हारे अधरों में मैं!
एक बूँद आँसू में पढ़कर फेंको मुझको
ऊसर मैदानों पर
खेतों खलिहानों पर
काली चट्टानों पर....।
मंत्र हूँ तुम्हारे अधरों में मैं
आज अगर चुप हूँ
धूल भरी बाँसुरी सरीखा स्वरहीन, मौन;
तो मैं नहीं
तुम ही हो उत्तरदायी इसके।
तुमने ही मुझे कभी
ध्यान से निहारा नहीं,
छुआ या पुकारा नहीं,
छिद्रों में फूँक नहीं दी तुमने,
तुमने ही वर्षों से
अपनी पीड़ाओं को, क्रंदन को,
मूक, भावहीन, बने रहने की स्वीकृति दी;
मुझको भी विवश किया
तुमने अभिव्यक्तिहीन होकर खुद!
लेकिन मैं अब भी गा सकता हूँ
अब भी यदि
होठों पर रख लो तुम
देकर मुझको अपनी आत्मा
सुख-दुख सहने दो,
मेरे स्वर को अपने भावों की सलिला में
अपनी कुंठाओं की धारा में बहने दो।
प्राणहीन है वैसे तेरा तन
तुमको ही पाकर पूर्णत्व प्राप्त करता है,
मुझको पहचानो तुम
पृथक नहीं सत्ता है!
--तुम ही हो जो मेरे माध्यम से
विविध रूप धर कर प्रतिफलित हुआ करते हो!
मुझको उच्चरित करो
चाहे जिन भावों में गढ़कर!
मंत्र हूँ तुम्हारे अधरों में मैं
फेंको मुझको एक बूँद आँसू में पढ़कर!
-दुष्यंत कुमार
एक बूँद आँसू में पढ़कर फेंको मुझको
ऊसर मैदानों पर
खेतों खलिहानों पर
काली चट्टानों पर....।
मंत्र हूँ तुम्हारे अधरों में मैं
आज अगर चुप हूँ
धूल भरी बाँसुरी सरीखा स्वरहीन, मौन;
तो मैं नहीं
तुम ही हो उत्तरदायी इसके।
तुमने ही मुझे कभी
ध्यान से निहारा नहीं,
छुआ या पुकारा नहीं,
छिद्रों में फूँक नहीं दी तुमने,
तुमने ही वर्षों से
अपनी पीड़ाओं को, क्रंदन को,
मूक, भावहीन, बने रहने की स्वीकृति दी;
मुझको भी विवश किया
तुमने अभिव्यक्तिहीन होकर खुद!
लेकिन मैं अब भी गा सकता हूँ
अब भी यदि
होठों पर रख लो तुम
देकर मुझको अपनी आत्मा
सुख-दुख सहने दो,
मेरे स्वर को अपने भावों की सलिला में
अपनी कुंठाओं की धारा में बहने दो।
प्राणहीन है वैसे तेरा तन
तुमको ही पाकर पूर्णत्व प्राप्त करता है,
मुझको पहचानो तुम
पृथक नहीं सत्ता है!
--तुम ही हो जो मेरे माध्यम से
विविध रूप धर कर प्रतिफलित हुआ करते हो!
मुझको उच्चरित करो
चाहे जिन भावों में गढ़कर!
मंत्र हूँ तुम्हारे अधरों में मैं
फेंको मुझको एक बूँद आँसू में पढ़कर!
-दुष्यंत कुमार
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